FAQs in Hindi

FAQs in Hindi

आयुर्वेद में कर्करोग नाम कोई व्याधि नही है । अनेक विद्वान, इस व्याधि का संबंध आयुर्वेद में बताये हुए अर्बुद, ग्रंथीसे बताते हैं । हमारी व्यक्तीशः (personally) ऐसी सोच है कि इनमेंसे किसी एक को भी आज जिसे कॅन्सर मानते हैं इसकी कक्षामें, शामिल नहीं कर सकते । इसलिए इस बीमारीका नाम निश्चित करते समय उचित सावधानी बरतनी चाहिऐ । आयुर्वेदकी ऐसी स्पष्ट मान्यता है कि बीमारीका सफलतापूर्वक इलाज करनेके लिये उसका नाम निश्चित करना आवश्यक नहीं है । आयुर्वेद बीमारीका मूलकारण समझनेको और उसके विरोधी निदान करके उपचार शुरू करनेको महत्व देता है । यह हम कई सालोंसे, कर्करोगके मरीजोंका वैद्यकीय उपचार निश्चित करते वक्त करते आये हैं और उसके नतीजे भी आशादायक हैं । आयुर्वेदके तत्वानुसार यदि हम दोष, धातू, मल, उपधातू ओज इनका परीक्षण करते हैं और उनमे जो बदलाव आये हैं उनको समझ लेते हैं तो सभी प्रकारके कर्करोगके मरीजोंके लिये हम सफलतापूर्वक वैद्यकीय उपचारका नियोजन कर सकते हैं । आपके सवालका संक्षेपमें जवाब देने के लिये हम ऐसा कह सकते हैं कि आयुर्वेदमें कर्करोग के लिए दवा हैं । आयुर्वेद जिस प्रकारसे कर्करोग के मरीजोंका उपचार करता हैं वह पारंपारीक चिकित्सा पद्धती जिस प्रकारसे उपचार करती हैं उससे बहुतही अलग हैं । एक ही प्रकारके कर्करोग से बाधित सभी मरीजों को, आयुर्वेद समान उपचार पद्धती का उपयोग नही करता जैसा कि पारंपारीक शास्त्र करता हैं । हरेक मरीजके बीमारीकी चिकित्सामें जितने भी घटक समाविष्ट हैं, उनका परिक्षण किया जाता है और बादमें चिकित्सा पद्धती निश्चित की जाती हैं । आयुर्वेदमें, रोगोपचारसे पहले, मरीजका रोगनिदान रोगके कारण समझ लेते हैं, जिनके कारण उसके शरीरके दोष और धातूमें बदलाव आया हुआ हैं, उसकी प्राकृतिक संरचना और अन्य अनेक घटकोंका विचार करते हैं । इसी कारण इस चिकित्साको व्यक्तीगत वैद्यकशास्त्र कहा जाता हैं ।

केमोथेरपी या रेडिओथेरेपी जैसे आधुनिक शास्त्रके उपचारके बाद भी, मरीज आरामसे और बिना खतरा आयुर्वेदिक दवा ले सकता हैं । आधुनिक दवा और आयुर्वेदिक दवा के असरमें कोई साधर्म्य नहीं हैं, उसके विपरीत परिणाम भी नहीं हैं । आधुनिक दवाओंके साथ यदि आयुर्वेदिक औषधिका सेवन करते हैं तो बहुत ही अच्छे नतीजें दिखाई देते हैं, ऐसा चिकित्सालयोंद्वारा और प्रयोगोंद्वारा सिद्ध हुआ हैं । मरीज, उसे बहुत लाभदायक सिद्ध होनेवाली आधुनिक और आयुर्वेदिक दवा बिन खतरा पहुँचे सेवन कर सकता हैं ।

कर्करोग पूरी तरह से ठीक होगा या नहीं यह सब बीमारीकी अवस्था और उसके प्रकार इसपर आधारित होता हैं । कर्करोग के अनेक प्रकार हैं जो १००% ठीक हो सकते हैं । उदाहरणार्थ, हम सब जानते हैं कि युवराजसिंह ‘सेमीनोमा’ कर्करोग से पिडित थे । इस प्रकारका कर्करोग पूरी तरहसे ठीक हो सकता हैं । कुछ प्रकारके कर्करोग, जैसे की दिमागका कर्करोग या बीजांडकोशका कर्करोग जो बहुत बढ चुका हैं, वह पूरी तरह ठीक हो सकता हैं ऐसा हम नही कह सकतें । यदि कोई मरीज, केमोथेरेपी या रेडिओथेरेपीके बाद प्रारंभिक अवस्था में, आयुर्वेदिक उपचार शुरू करता हैं तो ठीक होने की संभावना / अवसर बहुत जादा होती हैं । कर्करोग की चिकित्साके दरम्यान एक चुनौती आती है, वह चुनौती है रोग का फिरसे होना या रोग का स्थानांतरण हैं जिसके कारण ९०% कर्करोगके मरीजोंकी मौत हो जाती हैं । आयुर्वेदिक उपचार पद्धती, मरीजोंको प्राथमिक अवस्थाके उपचार के बाद तन्दुरुस्त रखती है और दूसरी अवस्थामें जानेसे प्रतिरोध करती है । संक्षेपमें, यदि मरीज प्राथमिक उपचारके बाद आयुर्वेदिक उपचार करता है, तो प्रायः कर्करोग फिरसे नही होता । यह हमारा आज तक का अनुभव है। इसी प्रकारके, अनेक मरीज अभी भी जिंदा हैं और उनका लिखित प्रमाण भी हमारे पास उपलब्ध हैं ।

बहुत लोगोंकी ऐसी धारणा है कि इन मरिजों के आहारसंबंधी सख्त नियम हैं । वास्तवमें, बात कुछ अलग हैं, मधुमेह के रुग्ण को, बहुत बार, शक्कर न खाने की सलाह दी जाती हैं, या रक्तदाबसे पीडित मरीजों को नमक कम खाने को कहा जाता हैं । यह भी आहारसंबंधी सख्त नियमन ही हैं, तो फिर आहारविषयक सख्त नियमनके बारे में यह सवाल क्यों उठाया जाता हैं ? इस कठोर नियमन के पीछे प्रमुख कारण यह हैं कि शक्कर खानेसे मधुमेह बढेगा और उसका बुरा असर (लिव्हर) दिल और यकृतपर हो जाएगा, इसलिए आधुनिक विज्ञानमें आहारविषयक कठोर नियमन बताया गया है ।

आयुर्वेद इससे भी आगे जाता हैं और अधिक विस्तार से इसके बारेमें सोचता है । आयुर्वेद में, कौनसे आहारसे कौनसी बीमारी नष्ट हो सकती हैं यह स्पष्ट किया हैं और इसी तरह बीमारीयोंको दूर किनारे पर रखनेके लिये भी कौनसा आहार लेना चाहिये इसका भी विवरण किया हैं । आप, आयुर्वेदकी दवा लेनी है या नही लेनी हैं इसमें निश्चय कर सकते हैं, मगर किसी भी हालतमें गलत आहारका प्रतिबंध करना चाहिए । पारंपारिक वैद्यकीय शास्त्रमें कर्करोग पाण्डुरता और रोगचिकित्सा का परिक्षण किया जाता हैं और प्रतिबंध की सलाह दी हैं जैसे कि जिसे यकृतका कर्करोग हैं उसने मदिरापान नहीं करना है, फेफडोंका कर्करोगवाले मरीजने तमाखूका सेवन नहीं करना चाहिए इत्यादि ।

दवाईयाँ शुरू करनेके बाद थोडे ही दिनोंमें कर्करोग के सभी लक्षण कम होते जातें हैं । उदाहरणार्थ, यकृतके कर्करोगियोंमें पानेवाले जो लक्षण हैं जैसे कि भूख न लगना, वमन की भावना, वमन यह सब दूसरे दिनसे, दूसरे हप्तेमें कम होने लगते हैं । दो हप्तोमें जलोदर में बदलाव दिखना शुरू होता हैं । हम ऐसा कह सकते हैं कि नतीजे पूर्णतः कर्करोग का प्रकार और मरीजकी विद्यमान शारिरीक स्थितीपर निर्भर होते हैं । ऐसा कहना सरासर गलत हैं कि आयुर्वेदमें नतीजे दीर्घकालके बाद दिखायी देते हैं । यह ऐसा रोग हैं जिसमे जिंदगी दाँवपर लगी होती हैं, कोई दीर्घ कालके लिये रूक नहीं सकता और हमारे रसायन चिकित्साकी यह खासियत हैं कि वैद्यकीय उपचार पद्धति शुरू होने के बाद वह अपना परिणाम तात्काल दिखायी देना शुरू करती हैं । अन्ननलिका संबंधित कर्करोगमें, जब मरीज पानी की एक बूंद भी पी नही सकता, हम ऐसी दवाईयाँ देते हैं जो जीव्हापे रखनेसे ही, वहाँसे ही काम करना शुरू करता हैं । धीरे धीरे, मरीज पानी या चाय, कॉफी पीने लगता है । यहाँतक की चावल भी खा सकता है । थोडे दिन बाद, मरीज खाना भी खाने लगता है । इसका कालावधी ३ ते ४ महिने हो सकता है ।

हजारो मरीजोंके अनुभवसे, दवाकी एक एतद्देशीय पद्धत / प्रणाली विकसित की गयी हैं जिसे फेज-१ कहते हैं । इसमे ३ आवर्तन होते हैं और हर आवर्तन २ महिनों का होता हैं । असलमें, आयुर्वेदमें आवर्तन, अवस्था / फेज इनकी कोई परिभाषा नहीं है, लेकिन हम ऐसा कहते हैं कि चिकित्साका चक्र पूरा करना हैं । इसे अच्छे तरीकेसे समझने के लिये हमसे ऐसी परिभाषाका उपयोग होता हैं । दोन महीनेका एक आवर्तन होता हैं और ऐसे ३ आवर्तनोंसे १ फेझ / अवस्था बनती हैं । इसी तरह, पहली फेझ / अवस्था ६ महिनोंकी होती हैं । छः महिने, दवाइयाँ देने के बाद, हम, मरीज के प्रतिसाद की जाँच करते हैं, छः महिने हो जाने के बाद सभी तरहकी जाँच करते हैं जैसे कि जैव रासायनिक, अर्बुदा, सोनोग्राफी, हाय रेझोल्यूशन कॉम्प्युटर सोनोग्राफी, पी.इ.टी. स्कॅन (पोझीशन इमिश्शन टोमोग्राफी) चेस्ट एक्स रे और आवश्यक शास्त्रीय जाँच भी करते हैं । इसके बाद हम फेझ-२ की ओर बढते हैं । कर्करोग यह रोग नही हैं जिसमें हम एक ही बार दवा दें और उसे भूला दें । हमें हमेशाके लिये कर्करोगपर नियंत्रण रखना पडता हैं । इसलिए रसायन बहुत महत्वपूर्ण हैं । इसलिए कोशिकामय स्तरपर रसायनका दृढतासे नियंत्रण रखना आवश्यक हैं । हमारे पास ऐसे उदाहरण हैं जिसमें ३ फेझेसके, यदि रसायन धीरे धीरे कम किये जाते हैं तो कर्करोगका पुनर्उद्भव नहीं होता । किंतु दुर्भाग्यवश, मुझे यहाँ बताना जरूरी है कि ३ फेझेस पूर्ण करनेके बाद भी कुछ मरीज याने १८ महिनोंके औषधोपचारके बाद, मरीज हमारे पास आते हैं जिनमें कर्करोगका पुनःप्रादुर्भाव हुआ हैं । ऐसी उदाहरणांमेंभी यह देखना महत्वपूर्ण हैं कि इन मरीजोंने १८ महिनोंकी उत्तम दर्जेकी जिंदगी जी ली हैं । दूसरी ओर, हमारे पास ऐसे भी  मरीज हैं जो १० साल से जादा जिंदा रहे हैं । इसलिए आयुर्मान आरोग्यपूर्ण तरीकेसे बढाने के लिये ये दवाइयाँ ठीक तरीकेसे लेना बहुत जरूरी हैं । संक्षिप्तमें, मैं यह कह सकता हूँ कि हर मरीजका औषधोपचार की अवधिसंबंधी निर्णय हर मरीजपर व्यक्तिशः निर्भर करती हैं ।

आयुर्वेदिक औषधियाँ प्रायः वनस्पती और खनिजों से बनायी जाती हैं । बहुत कम दवाइयाँ, जलीय और प्राणीमात्र स्त्रोतसे बनायी जाती हैं जो शंख और सीपीसे बनती हैं । आयुर्वेदमें कुछ खनिजपदार्थ (धातू भी बहुत बार इस्तेमाल किये जाते हैं) ऐसे मिश्रणोंसे बनायी गयी औषधियोंका बादमें सम्मिश्रण किया जाता हैं और शुद्ध किया जाता हैं जो उन्हे पूरी तरह से शुद्ध बनाता हैं । इसिलिए औषधियाँ जितनी प्रभावी तरीकेसे बनायी जाएंगी, बेहतर परिणाम देगी । मैं यहाँ यह बताना चाहता हूँ कि हम बाहरसे कोई भी दवाइयाँ खरीदते नहीं हैं । हम मूलभूत कच्चा मालसे लेके अंतिम उत्पादन तक सभी औषधियाँ घरमें खुद बनाते हैं । इसलिये हम इन औषधियोंके बारे में बहुत आत्मविश्वासी होते हैं, क्योंकि उनके गुणवत्ताके बारेमें हम बहुत सतर्क रहते हैं । हमने हमारी दवाओंसे हजारो मरीजोंका इलाज किया हैं, और हमारे मरीजोंमेसे किसीनेभी अवांछनीय परिणामके बारेमें कभी भी शिकायत नही की हैं और यह बात प्रयोगशालाके जाँच पडतालसे भी सिद्ध हो चुकी हैं ।

हमारे रूग्ण सचमुचमें, रोगलक्षण, जीवनकी गुणवत्ता और बढती उत्तर-जीविताके रूपमें सुस्पष्ट बदल दिखाते हैं । इसके बावजूद, हम रोगकी पूर्वसूचनाका परिक्षण आधुनिक (प्रोटोकॉल) राजनायिक शिष्टाचार पूरी तरहसे करते हैं । हर दो और ढाई महिने सभी जीव-रासायनिक जांच करते हैं । हर छः महिने बाद पेट स्कॅन, एमआरआय या सीटी स्कॅन किया जाता हैं । यदि मरीज कुछ रोगलक्षण दिखाने लगता हैं जिनके लिये जांच आवश्यक हैं तो हम वो भी करते हैं । उपचारसे संबंधित सभी निष्कर्षोंकी देखरेख / निगरानी अद्ययावत् निदान संबंधी और सजीव चित्रण करनेके तंत्रोंका इस्तेमाल करके की जाती हैं ।

बहुत बार, मरीज हमारे पास अपने पेट स्कॅन और सीटी स्कॅन लेके आते हैं । ऐसा दिखाई देता हैं कि भिन्न-भिन्न प्रकारकी चिकित्सा करनेके बाद भी अर्बुद वैसे ही कायम हैं । ऐसे वक्त, आयुर्वेदिक दवाईयाँ लेने के बाद ऐसा दिखाई देता हैं कि अर्बुद पूरी तरहसे ठीक हो गया हैं और पेट / सीटी / सोनोग्राफीमें वैसे दिखाई भी देता हैं । मरीजको अर्थपूर्ण तरीकेसे ठिक करने में और अर्बुदाको पूरी तरीकेसे ठीक करनेमें सापेक्षितासे जादा समय लगता हैं ।

मुझे यहाँ बताना हैं कि दुर्भाग्यवश कर्करोगके मरीज हमारे पास उसके अंतिम अवस्थामें आते हैं । जब भगवान के सिवा दूसरी उम्मीद बची नही होती, तब मरीज आयुर्वेदकी ओर मुडते हैं । सोच-समझकर यहाँ मै यह कहूँगा कि, यदि मरिज जितना जल्दी हो सकता हैं तब हमारे पास आता हैं तो उतना उसे अधिक लाभ होगा । यदि मरीज रोगकी प्रगत अवस्थामें हैं तो उसके जिंदगी की गुणवत्ता बढानेकी जिम्मेदारी हमारी बनती हैं । आज विश्वमें कर्करोग ठीक करनेके लिये जितना भी संशोधन हो रहा हैं उसकी मुख्य चिंता कर्करोगके रूग्णके जिंदगीकी गुणवत्ता सुधारनेकी हैं, यदि मरीजके शरीरमें कर्करोग हैं और वह २ से १५ साल जिंदा रहता हैं । यह महत्वपूर्ण केंद्रबिंदू हैं । और, आयुर्वेद चिकित्सा इस प्रकारकी प्रभावशाली उपचार पद्धती बन रही हैं । इसलिए आयुर्वेद जो मरीज रोग के प्रगत अवस्थामें है उसके जीवनकी गुणवत्ता सुधारनेपर आँख जमाये हैं और मरीज पूरी तरह से कैसे स्वस्थ होगा यह भी देखता हैं ।

बहुत बार मरीजको शल्यचिकित्सा करनेकी सलाह दी जाती हैं, जब मरीज सधन अर्बुदके कारण पीडित होता हैं । सामान्यरूपसे शल्यकर्मके बाद मरीजको केमोथेरेपी लेने की सलाह दी जाती हैं । आम तौरपर मरीजोंके परिवार या रिश्तेदार केमोथेरेपी या रेडिओथेरेपीसे चिंतीत होते हैं, क्यों कि उन्हे उसके अवांछनीय परिणाम मालून रहते हैं । यहाँ, आयुर्वेदिक उपचार पर्याप्त है या नही यह प्रश्न महत्वपूर्ण हैं । हमने इस प्रकारकी ऐसी चिकित्सा की हैं । आयुर्वेदिक चिकित्सा शुरू करनेके बाद ऐसा देखा गया हैं कि प्राथमिक अवस्था, दूसरी अवस्था की ओर आगे नहीं बढी । मरीजोंको बताया गया था कि उन्हे केवल १२-१५ महिने की जिंदगी या बची हुई जिंदगी या व्याधीमुक्त / रोगमुक्त जीवन मील सकता हैं । वे ५-१० सालके बाद भी जिंदा हैं । उनमेसे कई आज भी जिंदा हैं । जिन मरीजोंने केमोथेरेपी या रेडिओथेरेपीका अवलंब नहीं किया था, उन्हे भी आयुर्वेदिक चिकित्साके जैसे लाभ प्राप्त हुऐ हैं । आयुर्वेदमें कर्करोगको दूसरी अवस्थामें जाने से रोकने के और कर्करोग पूर्ण रूपसे ठीक कर देनेके लिये निश्चित चिकित्सा हैं । यहाँ, मैं एक अहम बात बताऊँगा कि आयुर्वेदमें रसायन नाम की सर्वोत्तम चिकित्सा हैं, जो कर्करोग को किनारे पर रखनेके लिये, मरीजोंको सूचीत की जाती हैं । यह चिकित्सा युगोंसे होती आयी हैं और यह आयुर्वेदकी परंपरा हैं । किसी भी रोगका पुनःउद्भव हो सकता हैं और इसलिये हमारा उद्देश उसे रोकना हैं । यही बात कर्करोगको भी लागू होती हैं । यहाँ रसायन चिकित्साका अर्थ कोई रासायनिक द्रव्य या केमोथेरेपी ऐसा नहीं हैं । इस उपचारपद्धतीसे मरीजकी आयुर्मर्यादा (कालावधी) बढती हैं ।

शरीर प्रभावित नही होता या बहुत कम प्रभावित होता है । रसायन मरीजका शरीर, अवयव, मनको, ध्यानमें रखते हुए बनाया जाता हैं । यह उस हद तक गहराई ले सोचता है । (गहराई में जाता हैं) आयुर्वेद रसायन आत्मातक जाता है और सफलतापूर्वक और सूक्ष्मतासे काम करता हैं । इसलिए शल्यकर्मके बाद कोई अन्य चिकित्सा न करते हुऐ मरीजको आयुर्वेद रसायन चिकित्सासे लाभ होता हैं जो सिद्ध हो चूका हैं ।

इसका जवाब पूर्णतः हाँ ऐसा हैं । आज तक हजारो मरीजोंने केमोथेरेपी या रेडिओथेरेपी लेते वक्त हमारी दवा का सेवन किया हैं । अनेक ऑनकॉलॉजिस्ट, केमोथेरेपी, रेडिओथेरेपी लेते वक्त आयुर्वेदिक दवा लेने का आग्रह करते हैं । हमे यह बतानेमें गर्व महसूस होता हैं कि इंग्लैडमें, ऑनकॉल़ॉजिस्टस् उनके मरीजोंको केमेथोरेपी या रेडिओथेरेपी लेते समय आयुर्वेदिक औषधोपचार लेने की सलाह देते हैं । इसके पिछे यह कारण हैं कि उन्होंने अच्छा प्रतिसाद देखा हैं । मरीजोंपर औषधोंका अवांछनीय परिणाम कमसे कम हुआ हैं या उनमेंसे बहुतोंको बिल्कुल ही गौण प्रभाव सहन नही करना पडा हैं । इंग्लैड और भारतके अनेक ऑनक़ॉल़जिस्टस् याने माना जो टाटा मेमोरियल हॉस्पिटलसे हैं, उन्होने ऐसा उनके निरिक्षणके बाद स्पष्ट किया हैं । हमे यह कहते हुऐ खुशी होती हैं कि वे मरीजोंको आयुर्वेदिक औषधोपचार लेनेकी सलाह देते हैं । हजारो मरीजोंको इस औषधोपचारका लाभ होते हुए देखा गया हैं । वैज्ञानिकों की रायके नुसार केमोथेरेपी या रेडिओथेरेपी बाधित पेशीओंके साथ साथ सामान्य पेशीकाओंको मार देती हैं ।

परिणामतः रोग प्रतिकार शक्ति कम हो जाती हैं । आयुर्वेदिक औषधोपचारसे सामान्य पेशिकाएँ जादा क्रीयाशील बन जाती हैं । हमारी औषधियोंका उद्देश बाधीत पेशिकाओंको स्वाभाविक तरीकेसे नष्ट होने देना हैं । केमोथेरेपीका कार्य सभी पेशीकाओंको नष्ट करना हैं । आयुर्वेदिक औषधोपचारसे सामान्य पेशीका जिंदा रहती है और केमोथेरेपीसे बाधित पेशिकाओंको नष्ट कर दिया जाता हैं । और औषधोंके अवांछनीय परिणाम भी कम होते हैं । केमोथेरेपी या रेडिओथेरेपी लेते वक्त आयुर्वेदिक उपचार बहुत लाभ देते हैं ।

निःसन्देह इसमें फायदा हैं । नॅशनल इन्स्टिट्यूट ऑफ कॅन्सर (NCI-US) या एनएचएस (UK) ने संशोधनके पश्चात ऐसा कहा हैं कि ९५% मरीज कर्करोगके सेकंडरीज या कर्करोग के फिरसे होनेसे मर जाते हैं । कर्करोग पर उसके प्राथमिक अवस्थामें उपचार किया जाता हैं और उसके पुनः होनेकी संभावना होती हैं, और इन दोनोके बिचका समय बहुत खतरनाक होता हैं । अन्य शास्त्रोमें ऐसी कालखंड में करनेके लिए कोई उपचार नही हैं । ऐसे समयमें आयुर्वेद शास्त्र सहाय्य करता हैं ।

कर्करोगके पुर्नउद्भव न होने के लिये आयुर्वेद सर्वोत्तम सहाय्यकारी हैं । ऐसे सेकडों उदाहरण हैं जिनमें आयुर्वेद की मददसे कर्करोगको पूरी तरह / पूर्णतः ठीक किया गया हैं ।

जितनी जल्दी मरीज आयुर्वेद के पास आता है उतना जादा लाभदायी / हितकर होता हैं । रसायन दो हप्तोंमें काम करता हैं । वह पेशीस्तरोंपर और शरीरके बाकी अंगोंपे भी काम करता हैं । कर्करोगमें हम कोई जोखीम नहीं उठा सकते इसलिये हमने यह संतुलीत उपचार पद्धती विकसित की हैं । हमारी दवा दो तरीकेसे काम करती हैं और यह संतुलन बनाए रखती हैं । यह कर्करोगको पुनः उद्भवसे रोकती हैं, साथ साथ विद्यमान कर्करोगको भी ठीक करती हैं । यदि कर्करोग प्रथम अवस्थामें हैं, तो हमने देखा हैं कि वह पूरी तरहसे ठीक हो सकता हैं । यदि कर्करोग आगे बढी हुई अवस्थामें है या मरीजकी आयु समाप्त होनेवाली हैं या मरीजको जितनी भी आयुर्मर्यादा बतायी गयी हो हम आयुष्मत्ता १००% से १०००% तक बढा देते हैं । हमारे पास ऐसे उदाहरण हैं । उदाहरणार्थ, एक मरीज जिसे आयुर्मर्यादा ३ महिने की दी गयी थी, वह अगले ६-८ महिने जिंदा रहा ।  एक मरीज फेफडोंका कर्करोगसे ग्रस्त था और अतिदक्षता विभागमें व्हेंटिलेटरपे था और जिसे केवल २४ घंटे का समय दिया था, वह अगले ९ महिनों तक जिंदा रहा । उसने अपने दप्तरमें चार महिने काम भी किया । हम ऐसा अनुभव करते हैं कि बहुत हद तक जीवन अवधि बढी हैं । भगवान श्रीकृष्णने कहा हैं कि जिसका जनम होता है, उसकी मृत्युभी होती हैं, परंतु यह जीवन निरामय चाहिए । हमे ऐसी जिंदगी जीनी चाहिए जिसमे वह केवल मरीजके लियेहि दुःखदायक नही है बल्कि उसके रिश्तेदारोंके लिये भी दुःखद न हो । आयुर्वेदिक चिकित्साने यह सिद्ध किया हैं । यह उपचार पद्धती कर्करोगके किसी भी अवस्थामें फायदेमंद सिद्ध हुई हैं ।

कुछ मिसालोमें कर्करोग अनुवंशिक हैं, किंतु बहुत मिसालोंमें (उदाहरणमें) वैसा नहीं है । कर्करोग का मुख्य कारण प्रदूषण और गलत जीवनशैली हैं । जिन स्थानोंमें रासायनिक द्रव्य और कीटकनाशकोंका भारी मात्रा में उपयोग किया जाता हैं, जहाँ कामके स्थानपर धुआँ बहुत जादा मात्रा में अंतश्वसनसे लिया जाता हैं, वहाँ कर्करोगका संभव होता हैं । यह मद्यपान या तम्बाखूकी लतके समान अन्य व्यसनोंके कारण भी होता हैं । ऐसे भी कुछ उदाहरण हैं जिनमें मरीजको कोई बूरी आदते नही होती, वह अच्छे स्वभावका होता हैं फिर भी वह कर्करोगसे ग्रस्त रहता हैं । यदि हम छोटी चिजोंका खयाल रखते हैं तो मात्र कर्करोगही नहीं तो अन्य कोई भी बीमारी हमें प्रभावित नहीं कर सकती । मगर कुछ मरीजोंका कहना हैं कि उन्हें यह नियमोंका पालन करना संभव नही हैं क्यों कि उनके काम का स्वरूप उन्हें ऐसा करने नहीं देती । ऐसे मरीजोंके लिए यही सलाह हैं कि वो रसायनकी मात्राका नियमित रूपसे सेवन करें । यदि रसायन, जो समर्थ (योग्य) और प्रभावी हैं, यदि निर्धारित मात्रा में लिया जाता हैं तो कोई भी व्याधि हमारे शरीरको बाधित नहीं कर सकती । मरीजकी युवावस्था उसकी ताकद, पात्रता अबाधीत रहती हैं । उसकी शारीरिक और मानसिक चेतना अविकल रहती हैं । वह एक निरामय जीवन जी लेता हैं । यह सभी लाभ रसायन देता हैं और कर्करोगको किनारेपे रखता हैं और वह वहाँ वैसे ही रहता हैं ।

आयुर्वेद ऐसी सिफारिश करता हैं कि रसायनका सेवन जितना हो सके उतना सुबह कर लें । रसायनका सेवन करनेके लिए सर्वोत्तम समय प्रातः ४.३० से ६.३० हैं । दंतमंजनके बाद रसायनको मधके साथ ग्रहण करना हैं । रसायनका सेवन करनेसे पहले और बादमें आधे घंटेतक कुछ भी  खाना या पीना नहीं हैं । रसायनके साथ मधका सेवन करना जरुरी हैं, क्यों कि मध पूरे शरीरमें फैल जाता हैं । वह सभी सूक्ष्म भागोंतक पहुँचता हैं । यदि रसायन मधके साथ ग्रहण करते हैं तो उसकी गुणवत्ता में वृद्धि होती हैं । हमारे शरीरकी सबसे सूक्ष्मतम पेशिओंतक पहुँचने में मध, रसायनकी सहाय्यता करता हैं । रसायनमें होनेवाली दवाके कणका आकार नॅनोमिटरमें होता हैं । परिणामतः उसके छोटे समूह विकसित होते हैं । मध इन्ही समूहोंको विभाजित करनेमें मदद करता हैं और हरेक कणपर खुदका आवरण बना देता हैं और सभी पेशिओंतक पहुँच जाता हैं । रसायन बहुत ही सूक्ष्म हैं और इसी कारण एक मात्रा में एक अरब से दस खरबतक सूक्ष्म छोटे कण होते हैं, जो हमारे शरीरकी अरब पेशिओंतक पहुँच जाती हैं । इसी कारण हम, बिना कोई छोटा रास्ता लिये वैज्ञानिक तरीकेसे रसायन बनाते हैं । रसायन  और उसके घटक बनाने में लगभग डेढ सालका समय लगता हैं ।

रसायन मुख्यतः पेशिकाओंपर तीन तरिकेसे काम करता हैं । हर पेशीकी अपनी आयु होती हैं । हर पेशिका तीन अवस्थाओंसे गुजरती हैं, अर्थात्, प्रारंभ, भरण-पोषण, कुछ पेशिकाएं आरंभके बाद उसी अवस्थामें रहती हैं और धीरेसे नष्ट हो जाती हैं । ऐसी पेशीओंको कर्करोग की पेशी कहते हैं । पेशीकाओंकी सभी अवस्थाएँ उचित क्रम में रखना यह रसायनका काम हैं । इसी वजहसे, रसायन पेशिओंकी स्वाभाविक मृत्युमें सहाय्यक होता हैं । रसायन किसीभी पेशिकाओंको मारता नही मगर पेशिकाओंकी आयु नियंत्रणमें रखनेमें मदद करता हैं । यहाँ यह प्रश्न उपस्थित हो सकता हैं कि रसायन पेशीकाओंकी स्वाभाविक मृत्यु में मदद करता है लेकिन ४-५ सेंटिमिटरवाला अर्बुद / फोडा कैसे घटाया जा सकता हैं? इसका एक अच्छा उदाहरण हम दे सकते हैं जैसे के इसका रहस्य हमारे खुदकी शरीर इसी शब्दमें हैं । जिसका ऱ्हास हो रहा हैं, वह शरीर हैं , इसलिए ऱ्हास होना यह शरीरकी अथक प्रक्रिया हैं । यह बात कर्करोगको भी लाभयुक्त हैं । इसी कारण अर्बुद भी स्वाभाविक तरीकेसे ऱ्हासमान हैं । मरीजोंको बिना किसी औषधके अवांछनीय / गौण प्रभाव बिना जो लाभ होता है वो रसायनका सबसे बडा गुण हैं । रसायनका दूसरा महत्वपूर्ण काम शरीरके श्वातुओंकी प्रतिकार शक्ती बढाना यह हैं । आयुर्वेद शरीरके भीतरकी बीमारीका महत्व स्पष्ट करता हैं और व्याधि तनको कैसे प्रभावीत करती हैं, इसका भी स्पष्टीकरण देता हैं । जब शरीरके अंदर दोष बढते हैं तब वो अन्य स्थानोंपर जाते हैं और दुर्गम / अगम्य भागोंमें पहुँच जाते हैं और व्याधि-निर्माण करते हैं ।

शरीर में कर्करोगकी शुरवात कहाँ होगी और उसकी वृद्धी कहाँ होगी यह कथन करना संभव नही हैं । इसिलिए, रसायन उसके सिपायीयोंको पूर्व शरीरमें भेजता हैं और व्याधि निर्माण न होने के लिए सावधानी बरतता हैं (सतर्क रहता हैं) सबसे महत्वपूर्ण काम जो रसायन करता हैं वह यह हैं कि वह कर्करोगको फिरसे शरीरके अंदर आने नहीं देता । शरीर और मन ऐसे दोनो स्तरोंपर रसायन काम करता हैं । जैसे शरीरकी प्रतिकार शक्ती होती हैं वैसे ही व्याधिके खिलाफ मन की भी प्रतिकार शक्ती होती हैं । इसे मानसिक रोगप्रभाव मुक्ती कहते हैं । किंतु, आजकाल, इस संकल्पनाका जादातर उपयोग नहीं किया जाता । आज ऐसी गलतफहमी हैं कि यह ताकद सिर्फ शरीरमें पायी जाती हैं (उपलब्ध हैं) किंतू मनके पास भी ऐसी ताकद होती हैं । यदि किसी व्यक्तीको ऐसा मालूम हो जाता हैं कि उसे कर्करोग हैं तो फिर वह मानसिक आघातसे नाउमेद हो जाता हैं । इसिलिए यह व्याधि मनपर हमला करती हैं । यह हमला इतना जबरदस्त होता हैं कि वह शरीरपर भी आघात करता हैं । शरीर और मन कैसे परस्पर-संबंधित हैं और व्याधि शरीर और मनका एकही समयमें कैसे खराबी पैदा करती हैं, यह बहुत अच्छे तरीकेसे आयुर्वेदने बताया हैं । उदाहरणार्थ, यदि एक छोटा बालक और एक वृद्ध कर्करोगसे बाधीत हो जाते हैं, दोनो उसका सामना करनेके लिये तैय्यार हैं, क्यों कि दोनो मानसिक दृष्टीसे सबल हैं, क्यों कि छोटा बालक व्याधिके गंभीरता जानता नहीं और बूढे व्यक्तीको लगता हैं कि उसने उसकी सभी कामनाएं पूरी कर दी हैं और वह निर्भय हैं । लेकिन जो व्यक्ती मुकाबला करनेके लिये तैय्यार नहीं हैं उसे रसायन, व्याधिके खिलाफ झगडने में सहाय्य करता हैं और यही रसायनका तीसरा महत्वपूर्ण कार्य हैं ।

उदाहरणार्थ, हमारे पास एक ७३-७४ उम्र का मरीज आया था जिसे बताया गया था कि उसके जीने की अवधि ३-४ महिने हैं । वह हमारे पासा आया और उसने रसायन चिकित्साकी माँग की । वह ८-९ सालके बाद आज भी जिंदा हैं और प्रति दिन १८ घंटे काम करता हैं । इस तरह रसायन पेशी-स्तरोंपर, डीएनए स्तरोंपर कार्य करता हैं और अङ्ग-प्रत्यङ्ग पर भी । इस तरह ऐसा कह सकते हैं कि रसायन एक औषधी हैं जो एकही समय तन और मनपे काम करती हैं ।

रसायन चिकित्सा करते समय उसे दो भागोंमें विभाजीत किया जाता हैं । एकमें, व्याधिपर इलाज किया जाता हैं, अर्थात् सिर्फ सिधा कर्करोगका इलाज किया जाता हैं । इसकी दवा दिनमें सिर्फ एकही बार दी जाती हैं । यह दवा, खाली पेट, सुबह मधके साथ एक ही बार लेनी हैं । अन्य दवाईयाँ अङ्गपर असर करती हैं, जिन्हे उपापचयी बदलाव कहा जाता हैं । शरीरमें जितना भी असंतुलन हो उसे संतुलित किया जाता हैं और अङ्ग-प्रत्यङ्गमे नियंत्रण में रखा जाता हैं और इस औषधीयोंके गुटसे रोग के लक्षणोंको घटाया जाता हैं । दोनो दवाईयाँ, अर्थात्, कर्करोग के लिये रसायन और अन्य औषधियाँ सम्पूरक हैं । मरीज केवल एक ही दवा नही ले सकता क्यों कि हमें पेशी स्तरके साथमें जैवस्तर भी काम करना होता हैं, अन्यथा, हमारे शरीरपे कर्करोग वापस आक्रमण कर सकता हैं । यदि, हमें निरोध सहीत बीमारी का पूर्णरूपसे इलाज (उपचार) करना हैं तो रसायन और अन्य दवाईयाँ एक साथ लेनी होगी ।

            रसायन चिकित्सा आयुर्वेदके आठ तत्वोंमेसे एक हैं । रसायन चिकित्सामें जो दवा बूढे होने की प्रक्रिया और व्याधि को नष्ट करती हैं (निष्प्रभाव करती हैं) उसे रसायन कहते हैं । बूढे होनेकी प्रकिया का अर्थ हैं आपमें यौवन / युवावस्था / जवानी जीवित रखना । यदि हम अपने अंदर युवावस्थाको जीवित रखना चाहते हैं तो हमारे शरीरकी हर एक कोशिकातक औषधी पहुँचना बहुत आवश्यक हैं । ऐसा बताया जाता हैं कि कर्करोग कोशिकाओंकी बीमारी हैं, इसलिए रसायनका मुख्य काम (यह रहता है कि जादासे जादा कौशिकाओंको जीवित और  ताकदवान रखना  और दीर्घायु बनाके, स्वाभाविक तरीकेसे रोगग्रस्त कोशिकाएँ नष्ट करना और नयी, निरोगी कोशिकाएँ बनाना जिसे कायाकल्प कहा जाता हैं । यह रसायनका यथावत् पहलू हैं । जब शरीर व्याधिग्रस्त हो जाता हैं तब भी रसायन एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं । जिन परिवारोंमें कर्करोग की पूर्व परंपरा हैं, उदाहरणार्थ, माता या पिताको कर्करोग हैं, भाई, बहन जैसे निकटतम संबंधी, मौसी या बुआ कर्करोगसे पिडित हैं, तो उस व्यक्तीको निरंतर रसायनका सेवन करना चाहिये । यदि कोई व्यक्ती रसायनका सेवन करता हैं, तो वह कर्करोगसे बाधीत नही होगा । आयुर्वेदमें ऐसी धारणा बतायी गयी हैं । इसका अनुभव बहुत रुग्णोंने किया हैं ।

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